"दिहाड़ी मजदूर" लॉकडॉन का भयावह मंज़र|

3साल पूर्व का लेख.....
 इन तस्वीरों को देख कर लोग कह रहे है ये पलायन के दृश्य हैं। लेकिन मजदूरों के मन की बात को सुनने को बाद ऐसा लगता हैं कि ये विचलित कर देने वाली तसवीर गरीबी की है,भुखमरी की है,बेरोजगारी की है,बेबसी की है,लाचारी की हैं और भी अन्य एकार्थी शब्द हैं।

  चलिए छोड़िये दिहाड़ी मजदूरों की बात यदि यह तस्वीर 
हाँ हाँ यह भीड़ वाली तस्वीर किसी मेले की होती तो आप कहते कितना मनोरम तस्वीर हैं लोग दूर दूर से भगवान का दर्शन करने मंदिर,मज्जिद, चर्च,गुरुद्वारा आदि में आये हैं। ईश्वर अल्लाह ईशु वाहेगुरू मनोकामना पूरी करें। ये सब ख्याल आपके मन मे आयेगी।
 
  वाकई में भीड़ के भी दो पहले है जैसे सिक्के के दो पहलू हेड और टेल। एक भीड़ होती है जो सुख के द्वार खोलती है है दूसरी दुख के द्वार खोलती है। 

दुख द्वार वाले भीड़ की श्रेणी में ही ये दिहाड़ी मजदूर वर्ग के लोग आते हैं।पहले ये दिहाड़ी मजदूर अपने राज्य को छोड़ दूसरे राज्य में पलायन कर गए। जब समस्या उत्पन्न हुई तो वो पुनः अपने राज्य को फिर पलायन यानी वापस आने के लिए बेवस हो गए।

पलायन×3 अरे भाई उनके इन प्रक्रिया को पलायन का नाम कौन देता हैं? ये प्रश्न आपको विचलित कर देंगे। वाकई में उसी पलायन का नाम है गरीबी,भुखमरी, बेरोजगारी,बेवसी, लाचारी     और जो नाम आप को देना है है वो दे सकते हैं।

 गाँव से शहर गया था कुछ काम मिल जाता उससे कुछ पैसे आ जाते जिससे परिवार चल जाता औऱ दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी हो जाता। इन बातों को सोच कर एक दिहाड़ी मजदूर गाँव से शहर की ओर जाता है। सच में एक दिहाड़ी मजदूर कमाने के उद्देश्य से नहीं दो वक्त के खाने,बेवसी,लचारी आदि से उबरने के लिए से मजदूरी करने जाते हैं। उनकी पहली प्राथमिकता होती है कि उनका परिवार किसी तरह से गरीबी,भुखमरी, बेवसी,लचारी से उबर जाए।

 जब स्थितियां परिस्थितियां यूँ कहे जब समय का कालचक्र बदलता हैं तो आदमी भी खासकर दिहाड़ी मजदूर की भी परिस्थितियां सामान्य से बदल कर असमान्य हो जाती हैं, असंतुलित हो जाती हैं। जो आज के समय में हो रहा हैं। 

जब समय का कालचक्र करवट लेता हैं तो उन दिहाड़ी मजदूर के पास एक वक्त के रोटी के लिए पैसे नहीं होते हैं।वो बेबस होते हैं लाचार होते है आखिर हम उस लचारी, बेबसी, भुखमरी, गरीबी,बेरोजगारी का नाम पलायन कैसे दे सकते हैं?
 उसे पलायन नही साहब दो वक्त का जुगाड़ कहिये,बेबसी कहिये,लचारी कहिये।

वो दिहाड़ी मजदूर हाँ वही दिहाड़ी मजदूर जिसे आप तस्वीर में देख रहे हैं उनके पास खाने के लिए एक वक्त का राशन तक नही है। इस #Lockdown में परिवहन के साधन नही होने के कारण दिहाड़ी मजदूर  पैदल अपने घर,अपने गंतव्य स्थान तक पहुँचने को बिवश हैं। कोई 200km कोई 450km  इस तरह के दूरी को तय करने के लिए पैदल जाने को बिवश हैं।

इसे गरीबी,बेवसी,लाचारी या पलायन समझे ये आप पर निर्भर करता हैं। आप इस तस्वीर को किस नजर से देखते हैं ये भी आपपर निर्भर करता हैं।

कहानी दिहाड़ी मजदूर के माध्यम मैं आपलोगो ये यहीं कहने का प्रयास कर रहा हूँ कि किसी भी तरह के आपदा में मजदूर के लोगों के ही घर ज्यादातर उजड़ते हैं।यही भीड़ सबसे ज्यादा  बेवस औऱ लाचार होता।ये समस्या आमतौर पर समाज से नहीं समाज के लोगों से उतपन्न होता हैं।

   दिव्यांश गांधी
दिल्ली विश्वविद्यालय
पूर्व छात्र नवोदय विद्यालय 

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