इस दुनिया में कोई भी किसी के लिए इतना खाली नहीं बैठा है जो आपके दुख और सुख में हमेशा साथ दे सके
मनुष्य के अंदर की भावना उसका आत्मविश्वास और आत्मबल दोनों होता है.असल जिंदगी में मनुष्य की भावना ही उसके अंदर का विज्ञान और सामाजिक विज्ञान है. अक्सर इसका रूप समय और परिस्थिति के अनुसार बदलते रहती है. वह खुद को बदलना नहीं चाहता है लेकिन सामने वाले के व्यवहार उसे खुद को बदलने के लिए मजबूर कर देते है. इसकी लंबी प्रक्रिया होती है और वह धीरे-धीरे एकांत चाहने लगता है.उसी एकांत में रच और बस जाता है.
अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जीवन में एकांत का होना जरूरी होता है. एकांत कुछ समय के लिए आदमी को परेशान और विचलित करता है.अवसाद के खेत में धकेलता है. वही एकांत एक समय के बाद मनुष्य को ऊर्जा प्रदान करता है और वह ऊर्जा आत्मविश्वास के जैसे होती है.
इस दौरान मनुष्य रोता भी है लेकिन उसके आंसू नहीं टपकते है.अपने हृदय के धरातल में छिपाए हुए दर्दों को लेकर घूट घूट कर रो रहा होता है. सामने वाले सामाजिक प्राणी कहे जाने वाले लोगों से उम्मीद और भरोसा उठ चुका होता है. वह इस लायक उनलोगों को नहीं समझता है कि वह अपने हृदय के धरातल में छिपे दर्दों को उससे साझा कर सके. भरोसे लायक इंसान को परखने में वह अपना बहुत सारा वक्त और ऊर्जा बर्बाद कर चुका होता है तब जाकर उसके भावनाओं को समझने वाला कोई अच्छा और सच्चा इंसान मिल पाता है ऐसी संभावना कम होती है.
निष्कर्ष-इस दुनिया में कोई भी किसी के लिए इतना खाली नहीं बैठा है जो आपके दुख और सुख में हमेशा साथ दे सके. इन कठिन रास्तों को खुद के बलबूते तय करने होते है. जिस तरह घड़ी की सुई 12 से शुरू होकर 12 पर आ रुकती है ठीक उसी तरह यह चार दिन की जिंदगी है घूम फिर के आना वहीं होता है.
साहिर लुधियानवी कहते है-"कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया"
साहिर लुधियानवी साहब यह भी लिखते है "हमने छोड़ दिए वो लोग, जिन्हें जरूरत थी, पर कद्र नहीं."
- दिव्यांश गाॅंधी
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